Friday 17 September, 2010

रवींद्रनाथ की देश-चिंता

रवींद्रनाथ की देश-चिंता ; कुछ प्रसंग
हितेन्द्र पटेल एसोसिएट प्रोफेसर, इतिहास विभाग, रवींद्र भारती
विश्वविद्यालय, कोलकाता.


रवींद्रनाथ ठाकुर को इस देश में आधुनिक समय के सबसे विख्यात संस्कृति
पुरूष के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है. लगभग सभी भारतीय भाषाओं के
लेखकों- पाठकों ने उन्हें सम्मान दिया है. गाँधी के बाद सबसे अधिक उन्हीं
के नाम से विभिन्न सरकारी और सार्वजनिक स्थलों के नाम भी रखे गये हैं.
ऐसी अनेक कविताएं और लेख भारत की विभिन्न भाषाओं में मिल जाते हैं जिसके
आधार पर यह कहना अनुचित न होगा कि पूरे भारत के साहित्यकारों ने पाठकों
को अपना कवि माना है. वे बंग्ला के कवि भले ही हों वे सही अर्थों में
पूरे आधुनिक भारतीय साहित्य के सबसे महान प्रतिनिधि माने गये हैं. नेहरू
का यह कथन कि उनके दो गुरू हैं- गांधी और रवींद्रनाथ इस बात के प्रमाण
हैं कि उन्हें सिर्फ साहित्यिक नहीं एक सांस्कृतिक पुरूष के रूप में
सम्मान दिया गया है.
इन सब बातों के आधार पर यह मान लिया जाना युक्ति-संगत नहीं होगा कि उनकी
सच्ची विरासत को लोगों के सामने उचित ढंग से रखा गया है. अधिकतर जगहों पर
उनके नाम का प्रयोग तो बहुत मिलता है लेकिन उनके विचारों के प्रति गहरा
सरोकार नहीं दिखता. आज वैश्वीकरण के युग में उन्हें ठीक से कितना पढते
हैं इसके बारे में बहुत उत्साह वर्द्धक टिप्पणी करना मुश्किल ही होगा. यह
कहना शायद ठीक होगा कि गाँधी की तरह उनके नाम का प्रयोग तो बहुत अधिक हुआ
है लेकिन उनके सरोकारों और उनके संघर्षों को भुला दिया गया. इस आलेख में
कुछ ऐसी बातों का उल्लेख किया गया है जिससे रवीन्द्रनाथ की सच्ची विरासत
को समझने में मदद मिल सके.
यह भ्रामक है कि रवीन्द्रनाथ अपने देश में अपने जीवन काल में सर्वप्रिय
थे. खुद उन्हीं के शब्दों में देखें. अपने एक लेख में वह कहते हैं -"
मेरे साहित्य के प्रति बहुत दिनों तक एक विरोध बना रहा. कुछ लोगों को
लगता था कि मेरी कविताएँ राष्ट्रीय हृदय से नहीं निकली हैं; कुछ लोगों ने
इसे समझ में नहीं आने वाली बतलाया और कइयों ने इन्हें अ-पूर्ण माना.
वास्तव में, मुझे अपने लोगों ने कभी भी पूरी तरह से स्वीकार नहीं
किया...". एक विद्वान ने एक दिलचस्प टिप्पणी की है जिसे ध्यान में रखा जा
सकता है. उनका एक सीधा सा प्रश्न था - रवीन्द्रनाथ अपनी उम्र के ही
विवेकानंद के साथ ही बडे हुए थे. दोनों के बीच के संबंध ऐसे थे कि लडकपन
में जब रवीन्द्रनाथ गाते थे तो विवेकानंद पखावज बजाते थे. दोनों के घर के
बीच आधा किलोमीटर से अधिक की भी दूरी नहीं थी. फिर उन दोनों महानों ने एक
दूसरे के बारे में इतना कम क्यों कहा. रवीन्द्रनाथ के एक-आध लेखों के
अलावा ज्यादा कुछ हमें नहीं मिलता. ऐसा क्यों था? इसके उत्तर में एक
सामान्य उत्तर होगा कि रवीन्द्रनाथ का परिवार ब्राह्म समाज का प्रचारक था
और विवेकानंद सनातनी वेदांती धारा के लोगों के साथ थे. पर यह व्याख्या
यथेष्ट नहीं. बंकिमचन्द्र भी हिंदूवादी मतादर्श के ही थे लेकिन उनके
प्रति रवीन्द्रनाथ ने बहुत ही आदर से लिखा. एक बार बंकिम की युवा
रवीन्द्रनाथ को फटकार ने भी रवीन्द्रनाथ के मन में बंकिम के प्रति आदर को
कम नहीं किया.
अपने एक प्रसिद्ध लेख 'कलाकार का धर्म' में रवीन्द्रनाथ ने उन्नीसवीं
शताब्दी के तीन आन्दोलनों को केन्द्रीय माना है. उनके अनुसार इन तीन
आंदोलनों ने बंगाल और पूरे देश को प्रभावित किया. ये आंदोलन थे- राजा
राममोहन राय द्वारा शुरू किया गया धार्मिक आन्दोलन, बंकिमचन्द्र
चट्टोपाध्याय द्वारा शुरू किया गया साहित्यिक आन्दोलन (जिसने अपने जादुई
छडी से सदियों से सोई हुई बंग्ला भाषा को जगा दिया) और राष्ट्रीय आंदोलन.
आमतौर पर रवींद्रनाथ को राष्ट्रवाद का विरोधी समझा जाता है लेकिन यह सही
नहीं है. यह सही है कि स्वदेशी आंदोलन के बाद उन्होंने उग्र राष्ट्रवाद
का विरोध किया था और अपने को स्वदेशी आंदोलन से एक तरह से अलग किया था.
अपने उपन्यासों में- खासकर घरे बाइरे में वे इसी रूझान को स्पष्ट करते
भी है. लेकिन वे राष्ट्रवादी आंदोलन को प्रतिक्रियावादी न मानकर
क्रांतिकारी मानते हैं जिसने अपने देश के इतिहास में देश के लोगों का
विश्वास पैदा किया और इस भ्रम को तोडा कि यूरोप की नकल में कोई मान है.
यह सब उसी लेख में स्पष्टत: लिखा है जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है.
रवीन्द्रनाथ के साहित्य के अध्ययन की एक समस्या यह रही है कि वे गाँधी की
तर्ह भाषा के भीतर गहरे अर्थों को लेकर चलते थे जिसके आधार पर उनकी बातों
के निहितार्थ को समझने के लिए उनके साहित्य में गहरे उतरना पडता है. थोडी
सी असावधानी से उनके साहित्य के भीतर से उल्टा अर्थ भी निकाला जा सकता
है. 'नेशनलिज्म' पर 1917 में लिखी उनकी पुस्तक के आधार पर बहुत सारे
विद्वान उन्हें राष्ट्रवादी न मानकर अंतर्राष्ट्रीय मनोभाव का कवि-विचारक
मानते हैं, लेकिन यह उनके विचारों का एक अधूरा पाठ है. रवींद्रनाथ हमेशा
अपने देश की संस्कृति, इतिहास और परंपरा को एक भारतीय दृष्टि से देखते
थे. इस भारतीय दृष्टि का एक नमूना वह लेख है जिसमें वे सभ्यता पर विचार
करते हैं. अपने एक लेख में कहा है कि उनके लिए यूरोप से आयातित
'सिविलाइजेशन' शब्द के लिए भारत में जो सबसे उपयुक्त शब्द है वह है धर्म.
यह धर्म उनके लिए कोई संगठित धर्म नहीं बल्कि वे मूल्य हैं जिसे व्यक्ति
अपने जीवन में लेकर चलता है. इस बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने एक
सुंदर उदाहरण दिया है. अपने एक अनुभव का उल्लेख करते हुए वे बताते हैं कि
एक बार कलकत्ता आते हुए रास्ते में उनकी मोटर में खराबी आ गयी और उसे फिर
से चलाने के लिए बार बार पानी की जरूरत थी. कुल सौ किलोमीटर की यात्रा
में कई बार गरीब लोगों ने उन्हें बहुत परिश्रम से पानी लाकर पानी दिया.
उसके बदले में किसी भी गरीब ने पैसे लेने से इंकार कर दिया. हालाँकि उन
गरीबों को पैसे की बहुत जरूरत थी. इस यात्रा में जब गाडी कोलकाता के
नज़दीक पहुंची जहाँ पानी देना सुलभ था वहाँ इसके बदले में आदमी ने पैसे
माँगे. रवींद्रनाथ ने लिखा है कि अगर गरीब लोग पानी का व्यवसाय करते तो
उनको बहुत फायदा होता लेकिन किसी प्यासे को पानी पिलाना या जरूरत-मंद को
पानी देकर या खाना खिलाकर उसके बदले पैसे लेना ये गरीब धर्म के विरूद्ध
समझते हैं. इन लोगों की दुनियावी जरूरत और उनके धर्म के बीच के इस संबंध
को रखते हुए रवींद्रनाथ कुछ टिप्पणियाँ करते है. वे कहते हैं कि जीवन के
सहज रूप में जो मूल्य लोग अपने भीतर लिए हुए चलते है (इसके लिए 'सस्टेन'
शब्द का प्रयोग किया गया है) उसकी प्राप्ति बहुत कठिन है. इस धर्म के बोध
को ही रवींद्रनाथ सभ्यता कहते हैं. (देखें- उनका प्रसिद्ध लेख-
'सिविलाइजेशन एंड प्रोग्रेस', बाउंडलेस स्काई, कोलकाता, 1964,
पुनर्मुद्रित 2006).
आशिस नंदी ने अपनी पुस्तक राष्ट्रवाद बनाम देशभक्ति में लिखा है कि
रवींद्रनाथ को डर था कि भारतीय राष्ट्र का विचार कहीं भारतीय सभ्यता पर
प्राथमिकता न प्राप्त कर ले. वे नहीं चाहते थे कि भारतवासियों की जीवन
शैलियों का आकलन केवल भारत नामक राष्ट्र-राज्य की कसौटियों पर हो. नंदी
दिखलाते हैं कि कैसे रवींद्रनाथ राष्ट्रवादी विचारधारा से असहमत होते चले
गये. उनके अनुसार रवींद्रनाथ राष्ट्रभक्ति नहीं देशभक्ति को आधार बना कर
चले थे. उनके जीवन में नंदी अलग अलग समय पर तीन तरह की प्रवृत्तियों की
चर्चा करते हैं. उनके अनुसार रवींद्रनाथ युवावस्था में हिंदू राष्ट्रवाद
से प्रभावित थे, वयस्क होने पर वे ब्राह्मणवादी-उदार-मानवतावाद से
प्रभावित हुए और जीवन के अंतिम वर्षों में राज्य-विरोधी होने तक पहुंच
गये. यह स्थापना रवींद्रनाथ को एक ऐसे विचारक के रूप में प्रस्तुत करती
है जो निरंतर अपने विचारों को अपने जीवनानुभवों और सभ्यता-विवेक से
परिष्कृत करने वाले विचारक के रूप में प्रस्तुत करता है. एक दार्शनिक ने
गाँधी के सन्दर्भ में उनके युग-धर्म के पालन को केन्द्रीय महत्त्व दिया
है. अगर रवींद्रनाथ के संदर्भ में किसी चीज को केन्द्र में रखकर देखने के
लिए उनके सभ्यता विवेक को प्रस्तावित किया जाये तो शायद गलत नहीं होगा.
यह उनका सभ्यता-विवेक ही था जो उन्हें राष्ट्रवाद के खिलाफ खडे होने की
शक्ति प्रदान करता था. यह सर्वविदित है कि जब बंगाल का विभाजन हुआ और
बंगाल के बुद्धिजीवी कर्जन की बंगाल को बाँटकर राष्ट्रवादी शक्तियों को
कमजोर करने के इस प्रयास का विरोध शुरू हुआ रवींद्रनाथ ने इस आंदोलन की
अगुवाई की थी. उनका गीत 'आमार सोनार बांग्ला' उस समय आंदोलन का गीत बन
गया था. लेकिन, रवींद्रनाथ ने स्वदेशी आंदोलन के दौरान के अपने अनुभवों
और भारतीय सभ्यता के प्रति अपनी दृष्टि के कारण यह देख लिया कि इस
विचारधारा में क्या दोष है. वे पश्चिमी इतिहास पर आधारित राष्ट्रवाद की
अवधारणा को भारतीय संदर्भ में दोषयुक्त मानते थे. इसी कारण से वे
गरमपंथियों के आदर्शों से सहमत नहीं थे. उनके इस कथन पर ध्यान दिया जाना
चाहिए- " जिन लोगों को उनकी राजनीतिक आजादी मिल गयी है, वे जरूरी नहीं कि
आजाद ही हों. वे तो केवल ताकतवर भर हैं. उनका बेलगाम आवेश स्वाधीनता के
धोखे में गुलामी को बढावा दे रहा है." (नेशनलिज्म , 1917, पुनर्मुद्रण,
मद्रास: मैकमिलन, 1985, पृ. 68. यह अनुवाद अभय कुमार दुबे का है) यह
रवींद्रनाथ के विचार का वह महत्त्वपूर्ण बिन्दु है जहाँ वह भारतीय
राष्ट्रवाद की उस निर्मिति के विरूद्ध खडे होने का जोखिम उठाते है जिसे
आकार देने में दयानंद, विवेकानंद, अरविंद घोष और तिलक जैसे लोगों का
योगदान था. इस निर्मिति को रवींद्रनाथ अस्वीकार करते हैं. उन्हें लगता है
कि भारत के शिक्षित लोग " अपने पूर्वजों द्वारा दी गयी नसीहतों के विपरीत
इतिहास से कुछ सबक लेने की कोशिश कर रहे हैं."(नेशनलिज्म, पृ. 64)
समकालीन इतिहास के इस दबाव के सामने खडे होने के रवींद्रनाथ के इस साहस
की प्रशंसा करनी पडती है. जब राष्ट्रवाद का जोर बढ रहा हो उनमें यह विवेक
था कि वे पूछ सकें- " क्या वह (भारत) अपनी विरासत बेच कर की गई कमाई के
बदले समकालीन इतिहास की चमक-दमक भरी क्षणभंगुर निर्मितियों को खरीदेगा?"
रवींद्रनाथ के लिए भारत की असली समस्या सामाजिक है, राजनैतिक नहीं. वे
मानते थे कि भारत में राष्ट्रवाद वास्तविक अर्थ में कभी था ही नहीं. वे
30 दिसंबर 1916 को कहते हैं कि " आज हमारे देश के लोग पुरखों की दी हुई
शिक्षा के विपरीत जा रहे हैं. पूरब आज इतिहास का वह पाठ पढ रहा है" जो
उसके अपने सांस्कृतिक अनुभवों से नहीं "जन्मा है". वे जापान की तरक्की को
भी नकली मानते हैं और कहते हैं कि उसने अपने को "भीतर से विकसित नहीं
किया है." (इस महत्त्वपूर्ण वक्तव्य के लिए देखें 'नेशनलिज्म इन इंडिया'
(संक्षिप्त), 30 दिसंबर , 1916, प्रमोद शाह संकलित एवं संपादित थॉट्स ऑन
रिलिजियस पॉलिटिक्स इन इंडिया वॉल्यूम 1, कोलकाता, 2009, पृ. 283-88).
रवींद्रनाथ जिस ओर 1916 के बाद लगातार बढ रहे थे वह था मानवतावाद की एक
वैश्विक समझ. अपने उसी वक्तव्य में वे कहते हैं कि दुनिया में सिर्फ मानव
का इतिहास है और सभी देशों का इतिहास उस इतिहास के छोटे-छोटे अध्याय भर
हैं. हीरेन मुखर्जी ने 'रवींद्रनाथ और उनकी मानवतावाद की धारणा' नामक
आलेख में महान कवि के भीतर के मानवतावाद की व्याख्या सरल शब्दों में की
है जिसमें मनुष्य के भीतर प्रेरणा के उत्स को समझने के कवि प्रयास की
अभिव्यक्ति हुई है. मुखर्जी के अनुसार रवींद्रनाथ मानते थे कि हर मनुष्य
के भीतर मानव और महामानव दोनों का वास होता है. व्यक्ति मानव की
अभिव्यक्ति है और जाति उसी व्यक्ति के भीतर के महामानवोचित अंश की
अभिव्यक्ति है. व्यक्ति नश्वर है और जाति अमर. जाति व्यक्तियों का कुल
योग नहीं है. अकस्मात व्यक्ति अपने भीतर इस महामानव के सत्य का दर्शन
करता है और उस सत्य के लिए अपने प्राणों तक की परवाह नहीं करता.
रवींद्रनाथ के शब्दों में - " एक व्यापक चित्त है जो व्यक्तिगत नहीं,
विश्वगत है, जिसका परिचय अकस्मात होता है. एक दिन आह्वान आता है, अकस्मात
मानुष-सत्य के लिए प्राण देने के लिए उत्सुक होता हूँ" व्यक्ति जब इस
आह्वान को सुन पाता है तभी वह लोगों को ईश्वर समझ कर उसकी सेवा के लिए
तत्पर हो उठता है. इसी भाव का विस्तार उनके विश्वविद्यालय की परिकल्पना
में है जो विश्व के छंद पर नृत्य करना सिखलाने के लिये वे बनाना चाहते
थे. (देखें- हीरेन मुखर्जी, 'रवींद्रनाथस कॉस्पेशन ऑन
ह्यूमेनिज्म'रवींद्र भारती पत्रिका वॉल्यूम 11, 2008)
सभ्यता और प्रगति के संबंध में रवींद्रनाथ की दृष्टि बहुत ही सूक्ष्म
विश्लेषण की मांग करती हैं. वे पश्चिम की वैज्ञानिक प्रगति और उसकी
समृद्धि के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण नहीं रखते. अपने एक लेख 'द
चैलैंजिंग एज' में वे पश्चिम के उस शक्तिशाली बौद्धिक प्रकाश के महत्त्व
को समझाते हैं जिसने दुनिया को जीत लिया. इस आलोक के 'बिजली के झटके' से
कैसे भारत ने समझा कि नैतिकता और न्याय का एक मानवोचित आधार होना चाहिए
जिसमें मानव मानव के भेद को मिटा दिया. कम से कम नैतिक धरातल पर इस देश
ने पहली बार जाना कि जाति चाहे जो हो न्याय और नैतिकता के नियम सबके लिए
एक ही होंगे. इस पश्चिम के आने से ही इस देश में एक आदर्श नैतिक मानदंड
तैयार हो सका. इसके लिए वे पश्चिम की प्रशंसा करते हैं. साथ ही वे लिखते
हैं कि पश्चिमी साहित्य, खासकर अंग्रेज़ी साहित्य के सम्पर्क में आकर
हमलोगों ने न सिर्फ भावना के गहरे संसार को जानना-समझना सीखा बल्कि
मनुष्य को मनुष्य के शोषण से मुक्त करने की भावना का भी विकास किया. अपने
सत्तरवे वर्ष में लिखे इस आलेख में (यानि 1931 ई. में) वे स्पष्ट रूप से
कहते हैं कि यह युग "यूरोप के साथ आंतरिक (इनवार्ड) सहयोग का युग है".
इतना कहने के बाद रवींद्रनाथ उस ओर जाते हैं जहाँ से वे इस पश्चिम के
शक्ति-जनित सभ्यता का दूसरा चेहरा भी दिखलाते है. वे इस पश्चिम के नैतिक
धरातल से गिरने को विश्वयुद्ध से जोडते हैं. वे कहते हैं कि विश्वयुद्ध
के बाद ऐसा लगता है कि यूरोप ने अपनी शुद्धता और सभ्यता का विवेक
('सैनिटी) को खो दिया है. वे एक सूत्र देते हैं जो मानो रवींद्रनाथ का
संदेश हो उन सबके लिए जो समाज में परिवर्त्तन के पक्षधर हैं. वे कहते हैं
कि हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि जो सबसे शक्तिशाली हैं उनका
दायित्त्व भी सबसे ज्यादा है. उनका अपराध ही सबसे घृणित है. वे यूरोप की
इस शक्तिशाली सभ्यता के पतन को अपरिहार्य मानते हुए भारतवासियों को
प्रगति के यूरोपीय मॉडल को न मानने की सलाह देते हैं. वे कहते हैं कि
उनका हृदय दु:ख से भर उठता है जब वे देखते हैं कि इस देश के पढे-लिखे लोग
बडे, शक्तिशाली, और तेजी वाली चीजों के प्रति आकर्षण देखते हैं. प्रगति
का जो आदर्श आंतरिक आदर्श से नहीं जुडता और हमें अपने दायित्व के प्रति
सचेत नहीं करता. यह हमें अधर्म की ओर ले जाता है. यह अधर्म हमें तेजी से
शक्तिशाली तो बना सकता है जिससे हम शत्रु को परास्त भी कर सकते हैं.
लेकिन, यह हमें भीतर से नष्ट कर देता है. वे कहते हैं - " इस धन और शक्ति
में विनाश के बीज हैं. पश्चिम में इस सम्पत्ति को मानव-रक्त से सींचा गया
है जिसकी फसल अभी लहलहा रही है." वे इस खुशहाल, शक्तिशाली पश्चिम की नकल
को भारत जैसी सभ्यता में जन्मे-पले लोगों द्वारा ललचाई निगाह से देखने को
दुर्भाग्यपूर्ण मानते थे. ईश्वर ने जिसे आंतरिक शक्ति से लबालब, आनंद से
भरपूर, फूल और सितारों के संगीत से भर रखा हो उसे क्या लालच से भरकर उस
रास्ते पर चलना चाहिए जिसमें वस्तु से शून्य (थिंग टू नथिंग) की यात्रा
होती हो?
रवींद्रनाथ का स्मरण उनकी पूजा करते हुए, विनाशकारी पश्चिम की अनैतिकता
फैलाती प्रगति की ओर दौड लगाते हुए करना उस महान सभ्यता विवेक और देशज
नैतिकता-बोध से भरे संस्कृति पुरूष का उपहास करना ही है. आज जरूरत इस बात
की है कि गांधी के साथ हम रवींद्रनाथ की दृष्टि के साथ अपने भीतर के
व्यक्ति और महामानव के बीच से महामानवोचित आदर्श का वरण करें. यही
रवींद्रनाथ को उनके 150वें वर्ष में हमारा संकल्प होना चाहिए. किसी खंडित
दृष्टि को रखकर, जैसा कि कई सम्प्रदायवादी और क्षेत्रवादी विचार सरणियों
से जुडे लोग करते हैं, या सर्वग्रासी प्रगति की ओर अंधाधुंध दौड लगाने
वाले लोग रवींद्रनाथ का नाम तो बहुत लेंगे लेकिन उनके विचारों से उनका
दूर दूर का रिश्ता नहीं होगा. रवींद्रनाथ की दृष्टि की व्यापकता का एक
उदाहरण देकर इस संक्षिप्त आलेख का समापन ठीक होगा.
आज रवींद्रनाथ को बंगाली जातीयता के महानायक बनाकर देखने का चलन है.
अन्नदाशंकर राय ने अपने संस्मरण में रवींद्रनाथ से जुडी एक बात का उल्लेख
किया है. प्रशासनिक परीक्षा में उत्तीर्ण होकर अन्नदाशंकर रवींद्रनाथ से
मिलने गए और यह बतलाया कि वे चाहते तो भारत के किसी भी भाग में जाकर
नौकरी कर सकते थे लेकिन, अपने बंग-माटी के प्रेम के कारण, उसे और समझने
के लिए उन्होंने इसी राज्य में सेवा करने का निश्चय किया. उन्हें लगा कि
इस बात से प्रसन्न होकर रवींद्रनाथ उनके बंगाल प्रेम को सराहेंगे लेकिन,
हुआ ठीक उल्टा. रवींद्रनाथ ने कहा कि यह ठीक नहीं हुआ. उन्होंने कहा कि
बंगाल तो उसका घर है इसलिए इसको तो वे कभी भी, देर-सवेर जान ही लेते
लेकिन देश के अन्य भाग को जानने समझने का, अपने देश के दूसरे हिस्से की
सेवा करने का, उससे जुडने का ऐसा मौका उन्हें नहीं चूकना चाहिए था !

3 comments:

  1. सुन्दर विवेचना है!

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  2. टैगोर का अनुभव इसकी पुष्टि करता है की गरीब आदमी की धार्मिक विचारधारा में संकटग्रस्त व्यक्ति की सहायता करना आवश्यक है, शायद अमीर आदमी और उसकी मोटर के पास खड़े होने का मौका भी कभी कभार ही मिलता है, फिर शारीरिक श्रम उनके लिए वर्गित भी नहीं है. पानी लाना उमंग से भरा काम है. शहरी लोगोमं के लिए यह कारक काम नहीं करता. शहरी अमीर आदमी की धार्मिक संवेदना गर्मी के समय पानी का स्टाल लगाने, भूखों के लिए लंगर चलाने और सर्दियों में अतिरिक्त कपडा दान करने में व्यक्त होती है . अलग वर्गों की संवेदना एक नहीं होसकती.

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