Saturday 20 March, 2010

हिन्दी में कूपमंडूकता

जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अपने ब्लॉग में दो बातों पर ध्यान खी6चा है- प्रथम- हिन्दी में कूपमंडूकता और द्वितीय- आलोचना के मुकाबले अनुसंधान को दोयम दर्ज्र का काम मानना. इसमें कोई संदेह नहीं कि हिन्दी में अधिकांश लेखन निरर्थक किस्म का, घिसे पिटे विषयों पर ही हो रहा है. एक खास किस्म की जडता हिन्दी को घेरे हुए है. लेकिन, इससे निजात पाने का जो कठिन रास्ता है उसको ढूढना ही होगा. कुछ सुझाव दिए जा सकते हैं जिसपर मित्र लोग विचार कर सकते हैं.
1. हिन्दी में ही हम हैं. यह रहेगी तभी हम रहेंगे. हिन्दी को समृद्ध करने के सिवाय, इसमें लिखने पढने और विचारने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है. यह हमारा शरीर है. जैसे हम अपने शरीर को नहीं बदल सकते हम हिन्दी से बाहर नहीं है. हिन्दी अपनी तमाम खूबियों और खामियों के साथ हमारी है. इसे दुरूस्त करना ही हमारा दायित्त्व है,
2. हिन्दी का मतलब हिन्दी साहित्य नहीं है. हिन्दी में विचार का मतलब सिर्फ हिन्दी आलोचकों के विचार पर केन्द्रित करना नहीं है. हिन्दी में अन्य विषयों में जो काम हुए हैं या हो सकते हैं उनको भी केन्द्र में लाना होगा. मुझे इस मामले में हिन्दी में बोले हुए का उपयोग बहुत महत्त्वपूर्ण लगता है. बहुत सारे लोगों ने अपने बोले हुए और दृश्य माध्मम के रचनात्मक कामों में हिन्दी का जो कार्य किया है उसे भी हिन्दी को अपनाना चाहिए.बहस इस बात पर भी हो कि बिमल राय ने अपनी फिल्मों में क्या और क्यों दिखलाया. टी वी माध्यम के भीतर भी ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जो इस देश को समझने में हिन्दी की संभावना को उजागर करता है. अभी भी डी डी न्यूज पर मध्यभारत की दशा दिशा पर जो डॉक्यूमेंट्री दिखाई गयी उसका कोई मुकाबला नहीं है.हिन्दी के लोगों को इसपर सोचना चाहिए. आई पी एल की कमेंन्ट्री हिन्दी में नहीं होती है और सुशील दोषी जैसे लोगों के लिए क्रिकेट कमेंट्री का काम मिलना मुश्किल क्यों हो रहा है इसपर विचार होना चाहिए.
3. जो कुछ हिन्दी में होता आया है और हो रहा है उसको ज्यादा ध्यान से देखना और अपने भाषा समुदाय में प्रचारित करना चाहिए. आज मनोज कुमार को हिन्दी के विद्वान याद नहीं करते. आश्चर्य है कि हिन्दी के स्मार्ट विद्वान लोग अंग्रेजी के विद्वानों के दो नम्बरी संस्करण बनकर घूमते हैं और हिन्दी में असली और बेहतर काम करने वाले पीछे तमाशा देख रहे हैं.
4. जो नये लोग हिन्दी में काम कर रहे हैं उनपर ध्यान दिया जाए. नये विद्वानों को ज्यादा ध्यान देकर सुना जाए. 60 पार के लोगों की तुलना में ये हमारे लिए ज्यादा उपयोगी हैं और नयी बात कहने की कोशिश कर रहे हैं.
(जारी)

No comments:

Post a Comment