Thursday 21 January, 2010

जगदीश्वर चतुर्वेदी एवं अन्य द्वारा फिलीस्तीन के समर्थन में आलेख

गाजा में इस्राइल के युध्दापराध
जगदीश्वर चतुर्वेदी

फिलीस्तीनी जनता का संघर्ष अब तक के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है। समस्त राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और फैसलों को ताक पर रखकर इस्राइल अपनी विस्तार वादी नीति पर कायम है। अमरीका के द्वारा इस्राइल के प्रत्येक कदम का समर्थन किया जा रहा है। एक साल पहले 27 दिसम्बर 2008 से 21 जनवरी 2009 के बीच इस्राइल के द्वारा जो तबाही गाजा में मचायी थी वह युध्दापराधों की कोटि में आती है। संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा नियुक्त जांच कमीशन ने भी इस्राइल अपराधों पर जबर्दस्त टिप्पणी की है। फिलीस्तीनी जनता के साथ अभी जिस तरह का व्यवहार किया जा रहा है वैसा अमानवीय व्यवहार सिर्फ फासिस्ट ही करते हैं।
सन् 2009 के जनवरी माह में 21 दिन तक चले इस्रायली हमले में फिलीस्तीनी जनता को अकथनीय कष्टों का सामना करना पड़ा। इस्राइली सेना के द्वारा किए गए हमले की जांच दक्षिण अफ्रीका के जज रिचर्ड गोल्डस्टान ने कहा नागरिक आबादी को सुचिंतित भाव से दण्डित ,अपमानित और आतंकित किया गया। समूची अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर दिया गया।
गोल्डस्टोन ने कहा कि यूएन सुरक्षा परिषद को जनवरी के हमलों के मामले को अंतर्राष्ट्रीय अपराध अदालत को सौंप देना चाहिए। दूसरी ओर इस्राइली प्रशासन और अमरीकी प्रशासन ने गोल्डस्टोन की जांच रिपोर्ट को एकसिरे से खारिज कर दिया। ओबामा प्रशासन ने साथ ही यूएनओ पर अपना हमला तेज कर दिया। आश्चर्य की बात यह है कि ईरान के परमाणु प्रोग्राम पर यूएनओ की संस्थाओं अमेरिका खुलकर इस्तेमाल कर रहा है। वहीं दूसरी ओर इस्राइल के गाजा हमले पर युध्दापराध के सवाल पर यूएनओ द्वारा गठित आयोग की सिफारिशें मानने के लिए तैयार नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि यूएनओ को अमेरिका ने अपने हितों के लिए दुरुपयोग करना बंद नहीं किया है। यूएनओ के मनमाने दुरुपयोग में फ्रांस,जर्मनी,ब्रिटेन आदि का खुला समर्थन मिल रहा है।
' अलजजीरा ' (26 दिसम्बर 2009) के अनुसार गाजा पर हमले के एक साल बाद इस इलाके के हालात सामान्य नहीं बनना तो दूर और भी बदतर हो गए हैं। यह इस्राइली नीतियों के द्वारा दिया गया सामूहिक दंड़ है और इसे सुचिंतित ढ़ंग से आर्थिक तौर पर फिलीस्तीन जनता को बर्बाद करने के लिहाज से लागू किया जा रहा है। इस्राइल के द्वारा 90 के दशक में गाजा और दूसरे इलाकों की आर्थिक नाकेबंदी का सिलसिला आरंभ हुआ था, सन् 2006 में व्यापक नाकेबंदी की गयी। यह नाकेबंदी फिलीस्तीन संसद के चुनावों में हम्मास के जीतने के बाद की गयी और उसके बाद से किसी न किसी बहाने फिलीस्तीनी इलाकों की नाकेबंदी जारी है। आर्थिक नाकेबंदी का फिलिस्तीनी जनता पर व्यापक असर हुआ है।
अलजजीरा के अनुसार सन् 2007 के बाद गाजा में इम्पोर्ट आठ गुना बढ़ गया़।बेकारी 40 प्रतिशत बढ़ गयी। बमुश्किल मात्र 7 प्रतिशत फैक्ट्रियों में काम हो रहा है। गाजा में ट्रकों के जरिए सामान की ढुलाई 25 प्रतिशत रह गयी है। अस्पतालों में दवाएं उपलब्ध नहीं हैं,बच्चों की असमय मौत,कुपोषण और भयानक भुखमरी फैली हुई है। इस्राइल ने समग्रता में ऐसी नीति अपनायी है जिसके कारण समूची फिलीस्तीनी जनता को दंडित किया जा रहा है। 'यरुसलम पोस्ट' के अनुसार इस्राइल के राष्ट्रपति ने कहा है कि गाजा की जनता को हम ऐसा सबक सिखाना चाहते हैं जिससे वह इस्राइल हमले करना भूल जाए। वाशिंगटन पोस्ट के अनुसार इस्राइली अधिकारी यह मानकर चल रहे हैं कि गाजा पर किए जा रहे हमलों और नाकेबंदी से त्रस्त होकर फिलीस्तीनी जनता हम्मास को गद्दी से उखाड़ फेंकेगी।
उल्लेखनीय है कि आम जनता पर किए जा रहे जुल्मो-सितम की पध्दति मूलत: आतंकी रणनीति का हिस्सा रही है। गाजा की नाकेबंदी का लक्ष्य है जनता को अ-राजनीतिक बनाना और अंतर्राष्ट्रीय सहायता पर निर्भर बनाना। इस्राइली नीति का मूल लक्ष्य है गाजा के विकास को खत्म करना।
गाजा की तबाही का व्यापक तौर पर आम जनता पर बहुत बुरा असर हुआ है। डाक्टरों की मानें तो गाजा की आधी से ज्यादा आबादी को युध्द की भयावह मानसिकता से निकलने के लिए मनो चिकित्सकों की मदद चाहिए। अहर्निश युध्द और नाकेबंदी ने युवाओं को पूरी तरह बेकार बना दिया है। खासकर पुरुषों को कहीं पर भी सुरक्षा नहीं मिल पा रही है। विगत कई सालों में इस्राइली हमलों के कारण समूची गाजा की आबादी को सामूहिक मानसिक बीमारियों में धकेल दिया गया है।
आमतौर पर वयस्क पुरुषों को सामाजिक सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है लेकिन गाजा में पुरुषों को ही सबसे ज्यादा संकटों का सामना करना पड़ रहा है।आज वे संरक्षक नहीं रह गए हैं। ऐसी स्थिति में बच्चों और औरतों पर क्या गुजर रही होगी सहज ही कल्पना की जा सकती है। इस्राइल के द्वारा फिलीस्तीनी जनता को सामूहिक दंड देना शुध्द फासीवाद है।








य़ासिर अराफ़ात और फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष
विजया सिंह
यासिर अराफ़ात ने इस्रायल के खिलाफ अरब का साथ तो दिया पर उन्होंने फिलिस्तीनी स्वायत्तता और मुक्ति के मसले को बिल्कुल भिन्न रूप में स्वीकार किया। यासिर अराफ़ात की सोच उन तत्कालीन राजनीतिज्ञों और सशस्त्र गुरिल्ला संगठनों से भिन्न थी जो एकीकृत अरब-राष्ट्र में विश्वास करते थे।

अराफ़ात ने फिलिस्तीन राष्ट्र की स्वतंत्रता प्राप्ति का नारा बुलंद किया। मिस्र,इराक,सऊदी अरब,सीरिया और मुस्लिम राष्ट्रों से अलग फिलिस्तीन मुक्ति को स्पष्ट रूप में सामने रखा। उन्होंने पहली बार फिलिस्तीन मातृभूमि की कल्पना की। अराफ़ात के लिए यह मुक्ति फिलिस्तीन जनता की आत्म-चेतना तथा पहचान से जुड़ी थी।

पैलेस्टीनियन नेशनल अथॉरिटी (पी एल ए) के पहले राष्ट्रपति यासिर अराफ़ात का पूरा नाम 'मोहम्मद अब्देल रहमान अब्देल रऊफ़ अराफ़ात अल-कुद्वा अल-हुसैनी या अबु अमर था। उनका जन्म 24 अगस्त 1929 में काहिरा (मिस्र की राजधानी) में हुआ था। फिलिस्तीन माता (ज़हवा अबुल सऊद)-पिता (अब्देल रऊफ़ अल-कुद्वा अल-हुसैनी) के पुत्र अराफ़ात सात बच्चों में दूसरे पुत्र थे। किडनी की खराबी के कारण माँ की मृत्यु अराफ़ात के पाँचवे वर्ष में ही हो गई थी। अराफ़ात और उनके छोटे भाई फ़ाथी के बचपन के आगामी चार वर्ष मामा सलीम अबुल सऊद के साथ बीते। बाद में उनकी देखभाल बहन इनाम ने की। पिता के साथ उनके संबंधों का पता इसी से चल जाता है कि उन्होंने न तो पिता की अंत्येश्टि क्रिया में हिस्सा लिया न ही कभी उनकी कब्र पर गए।
सन् 1950 में उन्होंने किंग फहद विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। अराफ़ात ने यहूदियों और ब्रिटिशों के खिलाफ फिलिस्तीन लड़ाकों को हथियार मुहैय्या कराने का काम किया।
सन् 1948 में अरब-इस्राइली युध्द के दौरान अराफ़ात ने पढ़ाई छोड़ कर अरबों का साथ दिया। वहाँ वे फिलिस्तीनों की तरफ से फिदायीन बनकर नहीं अरबमित्र बनकर गए। 1949 में अरबों की हार से मर्माहत होकर वे काहिरा चले गए। किंग फहद प्रथम विश्वविद्यालय, जो बाद में काहिरा विश्वविद्यालय के नाम से जाना गया, लौटकर उन्होंने सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और फिलीस्तीन छात्रसंघ (जनरल यूनियन ऑफ पैलेस्टीनियन स्टूडेन्ट्स) के अध्यक्ष (सन्1952-1956) भी रहे।
अराफ़ात ने कुछ समय के लिए मिस्त्र में काम किया। तदुपरान्त सिविल इंजीनियरिंग के काम को आधार बनाकर वे कुवैत पहुँच गए जहाँ उन्हें दो फिलिस्तीन मित्र - अबु इयाद और अबु जिहाद मिले। इन दोनों ने अराफ़ात के जीवन और फिलिस्तीन राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुवैत में अराफ़ात स्कूल शिक्षक बने और दूसरी ओर अपनी कांट्रैक्टिंग फर्म भी चलाई। बाकी समय उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों और फिलिस्तीनी शरणार्थियों से मिलने में बिताया। इसके परिणामस्वरूप 'अल-फ़तह' नामक विशाल किन्तु गुप्त संगठन का निर्माण हुआ जिसके विकास में अराफ़ात ने अपनी फर्म का पूरा लाभ लगा दिया। 'अल-फ़तह' का अरबी में अर्थ 'हरकत अल-तहरीर अल-वतनी अल-फिलिस्तीनी' अर्थात् 'फिलिस्तीन राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम' था।
अल-फ़तह (सन्1959) द्वारा प्रकाशित पत्रिका में इस्राइल के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष की वकालत की गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए फिलिस्तीनी नागरिकों को एकजुट होने की सलाह दी गई। अराफ़ात ने फिलिस्तीनियों को एकजुट करने के क्रम में काफी सावधानी बरती। वे फिलिस्तीनी अस्मिता से समझौता करने को तैयार नहीं थे। जबकि कई अरब देश, इस्रायल के साथ मिलकर फिलिस्तीन स्वायत्तता को समाप्त करना चाहते थे। यही कारण था कि बड़े अरब राष्ट्रों की तरफ से की गई आर्थिक सहायता की पेशकश को उन्होंने ठुकरा दिया। बिना किसी की सरपरस्ती और दबाव के वे आत्मनिर्भर होकर कार्य करना चाहते थे। किन्तु सबसे छिटककर अलग हो जाने की भूल न करते हुए उन्होंने आर्थिक सहायता और किसी प्रकार के गठजोड़ को नकारते हुए भी विभिन्न संगठनों से उनके एकीकृत समर्थन की बात की। अल-फ़तह को स्थापित और विकसित करने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की। इस संगठन को सुचारू रूप से चलाने के लिए उन्होंने कुवैत और खाड़ी देशों के धनिकों से मदद ली। बडे-बड़े व्यवसायियों ने और तेल व्यापारियों ने उदारता से अल-फ़तह की मदद की। बाद में इस कार्य में सीरिया और लीबिया जैसे देश भी जुड़ गए।
मुक्त ,संप्रभु और स्वायत्त फिलिस्तीन राष्ट्र और फिलिस्तीनियों के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों को एकत्रित कर अरब लीग की सहायता और समर्थन स् ' फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन'(पैलेस्टाइन लिबरल ऑर्गेनाइजेशन-पी एल ओ) की सन् 1964 में स्थापना की। इस संगठन के अतंर्गत अन्य अरब समूह सुलह और मेल-मिलाप से चलने के पक्षधर थे।

किन्तु 1967 के छह दिनों तक चले लम्बे,भयानक युध्द में इस्राइल की विजय के बाद 'अल-फ़तह' सबसे मजबूत और शक्तिशाली संगठन बनकर उभरा। पी एल ओ की कार्यकारी समिति का चेयरमैन बनने के बाद यह पूरा संगठन अराफ़ात के हाथों में आ गया। पी एल ओ अब अरब समूहों की कठपुतली नही वरन् जॉर्डन में स्थित फिलिस्तीन के अधिकारो और संघर्ष से जुड़ा आत्मनिर्भर संगठन बन गया था।
आगे चलकर जॉर्डन सरकार और फिलिस्तीनियों के बीच भी तनाव बढ़ने लगा था। जिसका मूल कारण था अराफ़ात ने जॉर्डन में सत्ता और निजी सेना के साथ अपनी हुकूमत तैयार कर ली थी। देश के सभी बड़े राजनीतिक पदों पर आधिपत्य जमा लिया था।

फिलिस्तीन रक्षक सेना ने जॉर्डन में सामान्य नागरिक जीवन को नियंत्रित करना शुरू कर दिया था। हालात यह हो गए कि जॉर्डन के राजा हुसैन को अपनी सत्ता और देश की सुरक्षा की चिंता होने लगी। आखिर उसने पी एल ओ को देश से बाहर निकाल दिया। अराफ़ात ने हार नहीं मानी। उन्होंने लेबनान में इस संगठन के पुनर्निर्माण की कोशिश की। लेकिन इस्रायल के लगातार सैनिक हमलों, लेबनान के गृहयुध्द और संगठनों की मनमानियों ने उसे नाकाम कर दिया। इसके बाद उन्होंने अपना मुख्यालय टयूनिस में बनाया।
अराफ़ात का पूरा जीवन फिलिस्तीनी स्वतंत्रता हेतु एक देश से दूसरे देश में भ्रमण करते हुए बीता। उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन और क्रियाकलापों को बाहरी दुनिया से छिपाए रखा। 61वर्ष की उम्र में उन्होंने सुहा ताविल(27 वर्ष) से शादी की। सुहा ने ज़हवा नामक पुत्री को जन्म भी दिया। वे भी अपंग और अनाथ बच्चों के लिए सकारात्मक मानवीय कार्यों में लगी रहीं।
1980 में अराफ़ात ने लीबिया और सऊदी अरब की मदद से पी एल ओ को पुन: गठित किया। दिसम्बर 1987 में फिलिस्तीन के पश्चिमी किनारे(वेस्ट बैंक) और गाज़ा पट्टी में इस्राइल के विरुध्द फिलिस्तीनी युवाओं ने पहला विद्रोह शुरू किया। अबु जिहाद के कहने पर अराफ़ात ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया। इस विद्रोह से सशस्त्र फिलिस्तीनी संगठन जुड़ने लगे जिनमें हम्मास और पैलेस्टीनियन इस्लामिक जिहाद (पी आई जे) प्रमुख थे।

15 नवम्बर 1988 को पी एल ओ ने स्वतंत्र फिलिस्तीन राज्य की घोषणा कर दी। अराफ़ात पर लगातार आतंकवादियों से जुड़े होने के आरोप लगते रहे। इसी बीच उन्होंने सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 242 का समर्थन करते हुए सभी प्रकार की आतंकवादी कार्रवाइयों की भर्त्सना करते हुए सभी देशों के लिए शांति और सुरक्षा के महत्व को स्वीकार किया। उनके इस बयान का स्वागत किया गया। यह वक्तव्य वस्तुत: पी एल ओ के आधारभूत सिध्दांतों पर आधारित था। 2 अप्रैल 1989 में फिलिस्तीनी राष्ट्रीय परिषद की केंद्रीय समिति द्वारा अराफ़ात को राष्ट्रपति चुना गया। 1990-91 के खाड़ी युध्द में अराफ़ात ने सद्दाम हुसैन (इराक) द्वारा कुवैत पर आक्रमण का समर्थन किया और अमेरिका द्वारा इराक पर हमले का विरोध किया। अराफ़ात के इस निर्णय ने मिस्त्र और अन्य अरब देशों जो अमेरिका के साथ थे, से संबंधों को खराब कर दिया। उनके इस कदम को शांति विरोधी माना गया। इसका आर्थिक लाभ अल-फ़तह व पी एल ओ के विरोधी संगठनों और हम्मास आदि को मिला।
1990 में अराफ़ात और उनके महत्वपूर्ण अफसरों ने इज़राइल से शांति वार्ता शुरू कर दी जिसके परिणामस्वरूप 1993 में ओस्लो नामक समझौता वार्ता शुरू हुई। इसमें कई महत्वपूर्ण फैसले लिए गए, जैसे- वेस्ट बैंक और गाज़ा पट्टी में फिलिस्तीनियों के अधिकार, फिलिस्तीनी पुलिस बल तथा अंतरिम सरकार का गठन। ओस्लो संधि से पहले अराफ़ात को हिंसा के त्याग और इस्राइल के अस्तित्व को अधिकारिक मान्यता देनी पड़ी।

इस्राइल के प्रधानमंत्री इज़ाक रैबिन ने भी पी एल ओ को आधिकारिक मान्यता प्रदान की। इसीलिए अराफ़ात और इज़ाक रैबिन को शीमोन पेरेस के साथ 'नोबुल शांति सम्मान' से नवाज़ा गया। ओस्लो समझौते के अनुसार 1996 में फिलिस्तीन में चुनाव हुए और अराफ़ात राष्ट्रपति चुने गए। उनकी कार्यप्रणाली में लोकतांत्रिक कम और मनमाना भाव ज्यादा था।
इस्राइल में 'बेंजामिन नेतनयाहू' के नेतृत्व में दक्षिणपंथी सरकार के आते ही इस्राइल और फिलिस्तीन की शांति प्रक्रिया को धक्का पहुँचा। इनके बीच आगे चलकर कई समझौते भी हुए। किन्तु हम्मास और पी आई जे जैसे संगठनों ने इस्राइल पर हमले कर शांति प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करनी शुरू कर दी। नाराज़ होकर इस्राइल ने भी फिलिस्तीन में 'ऑपरेशन डिफेन्स शील्ड' आरम्भ कर दिया। अराफ़ात के मुख्यालय रामल्लाह पर भी हमले किए गए।
अन्तत: 2003 में अमेरिका के दबाव में अराफ़ात ने पद-त्याग किया। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने अराफ़ात पर शांति प्रक्रिया में असफल होने का आरोप लगाया। सम्पत्ति को लेकर भी उनपर कई आरोप-प्रत्यारोप लगते रहे। पश्चिमी विचारक अराफ़ात के बड़े राजनीतिक जीवन का मुख्य कारण अनिश्चित, आक्रामक युध्दनीति और निपुण राजनीति को मानते हैं।

अराफ़ात का फिलिस्तीनियों में बहुत सम्मान था। यही कारण था कि इस्रायल द्वारा अराफ़ात को मारने के सभी प्रयास नाकाम हो गए थे। 11 नवम्बर 2004 को 75 वर्ष की आयु में अराफ़ात की मृत्यु अनजानी बीमारी से हुई। निधन का स्पष्ट कारण ज्ञात न होने के कारण उनकी हत्या के कयास भी लगाए जाते रहे हैं। उनकी कब्र मुख्यालय रामल्लाह में बनाई गई है।
(लेखिका- विजया सिंह, रिसर्च स्कॉलर, कलकत्ता विश्वविद्यालय,कोलकाता )




फिलीस्तीन मुक्ति का सपना और एडवर्ड सईद का प्राच्यवाद


सुधा सिंह
एडवर्ड सईद को सन् 1978 के पहले दुनिया में बहुत कम लोग जानते थे। सन् 1978 में 'ओरिएण्टलिज्म' किताब के प्रकाशन के साथ उनके विचारों और गतिविधियों की ओर सारी दुनिया के बुध्दिजीवियों और राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं का ध्यान गया। 'ओरिएण्टलिज्म' किताब को आलोचना में पैराडाइम बदलने वाली किताब के रूप में जाना जाता है। इस किताब ने आलोचना को बदलने के साथ ही सईद को भी बदला, पहले सईद को मध्य-पूर्व अध्ययन के दायर में रखकर विचार किया जाता था। किंतु इस किताब के प्रकाशन के बाद उन्हें एक नए स्कूल के नाम से जाना जाने लगा जिसे आलोचना में 'उत्तर औपनिवेशिक' आलोचना कहते हैं। यह मूलत: उत्तर आधुनिकता के अनेक लक्षणों से युक्त आलोचना स्कूल है।
सईद का जन्म फिलीस्तीन में हुआ था,किंतु पालन-पोषण और शिक्षा का वातावरण अंग्रेजी-अरबी सांस्कृतिक माहौल में हुआ। मिस्र के अंग्रेजी वातावरण में उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। बाद में अमेरिका जाकर उन्होंने स्नातक और बाद की उपाधियां हासिल कीं। अण्डर ग्रेजुएट डिग्री प्रिंस्टन यूनीवर्सिटी से ली, ग्रेजुएट डिग्री हार्वर्ड से ली,और बाद में कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अंग्रेजी और तुलनात्मक साहित्य के अध्यापक के तौर पर लंबे समय तक काम किया।
सईद ने स्वयं लिखा है सन् 1967 तक वह पूरी तरह अंग्रेजी के प्रोफेसर की तरह जीवन व्यतीत करने लगे थे। सन् 1968 में उन्होंने लिखने और पर्यटन के बारे में सोचा। पर्यटन और लेखन का मूल मकसद था फिलीस्तीन संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लेना,फिलीस्तीन राजनीति का प्रचार करना और फिलीस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में निर्मित करना। इसी क्रम में सईद ने अपनी एक नयी पहचान निर्मित की, स्वयं को फिलीस्तीन की पहचान प्रदान की। सारी दुनिया में फिलीस्तीन अस्मिता को स्थापित करने का काम किया।
सन् 1969 और 1970 में सईद ने अम्मान की यात्रा की, जोर्डन की राजधानी होने केकारण और फिलीस्तीन के हथियारबंद ग्रुपों का केन्द्र होने के कारण यह शहर चर्चा के केन्द्र में था। उस समय फिलीस्तीनी लोग यह सोचते थे कि हथियारबंद संघर्ष के जरिए वे इजरायल को परास्त कर देंगे। उस समय जोर्डन और लेबनान में बड़ी तादाद में फिलीस्तीनी शरणार्थी रह रहे थे। ये वे लोग थे जो पहले फिलस्तीनी इलाकों में रहते थे किंतु मध्यपूर्व युध्द (1967) के दौरान इन्हें अपने घर-द्वार छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। कालान्तर में लेबनान में फिलीस्तीनियों पर हमले हुए लेबनान के प्रशासन ने अमरीका के दबाब में आकर उन्हें खदेड़ना शुरू कर दिया। यही वह बिंदु है जहां से सईद के व्यक्तित्व और लेखन में मूलगामी परिवर्तन आता है।

पहले वह एक अंग्रेजी के प्रोफेसर के रूप में जाने जाते थे और अब उन्होंने फिलीस्तीन के अधिकारों के प्रचार प्रसार का काम अपने जिम्मे ले लिया और अनेक मर्तबा बेरूत और फिलीस्तीनी इलाकों की यात्रा की। बेरूत ने सईद को इतना आकर्षित किया कि सन् 1972-73 में वह अपनी एक वर्ष की अकादमिक अवकाश की छुट्टियां लेकर वहां चले गए और वहां रहकर गंभीरता के साथ अरबी का अध्ययन किया। कालान्तर में अमरीका और सारी दुनिया में उन्होंने फिलीस्तीन के लक्ष्य के प्रचार के अगणी सिध्दान्तकार,चिन्तक और आन्दोलनकारी के रूप में काम किया।
सईद के चिन्तन के तीन प्रमुख क्षेत्र हैं पहला है मध्यपूर्व और फिलीस्तीन, दूसरा है साहित्य और आलोचना और तीसरा है मीडिया। इन तीन क्षेत्रों में सईद के नजरिए को व्यवहारिक तौर पर लागू करने की कोशिश की जाएगी। प्रस्तुत आलेख में मध्यपूर्व संबंधी नजरिए और तत्संबंधित मीडिया कवरेज के उन पक्षों की मीमांसा कीएगी जो स्वयं सईद ने रेखांकित किए हैं, यहां उनके मीडिया परिप्रेक्ष्य के बुनियादी सूत्रों के सहारे मध्यपूर्व के कवरेज को विश्लेषित करने की कोशिश की गई है। चूंकि उनके मूल्यांकन में सबसे पहले जिन देशों की संस्कृति की अभिव्यंजना मिलती है उनमें लेबनान का जिक्र खूब आता है इसमें भी बेरूत का सबसे ज्यादा जिक्र आता है। बेरूत का प्राकृतिक सौंदर्य उन्हें बार-बार खींचता है साथ बेरूत में रहने वाले फिलीस्तीनी भी खींचते हैं।
सईद ने फिलीस्तीन के बारे में जब लिखना और बोलना शुरू किया तो वे फिलीस्तीन से बहुत दूर थे। वे अमरीका में रहते थे। फिलीस्तीन के बारे में कम जानते थे। सारी दुनिया में फिलीस्तीन के बारे में अमरीका-इस्राइल का प्रौपेगैण्डा फैला हुआ था। इस्राइल के नजरिए कर ही सारी दुनिया में वर्चस्व था। सारे मीडिया अमरीका-इस्राइल के नजरिए का एकतरफा प्रचार करते रहते थे। सईद ने एकदम विपरीत माहौल में रहते हुए सारी दुनिया में और खासकर अमरीका में फिलीस्तीन राष्ट्रवाद को प्रमुख एजेण्डा बनाया। फिलीस्तीन की आजादी के लक्ष्य को प्रमुख मुद्दा बनाया। इस्राइल के मीडिया वर्चस्व को अकेले प्रचार के द्वारा अमरीका में ध्वस्त करने का काम किया। फिलीस्तीन जनता के संघर्ष को सारी दुनिया तक पहुँचाने में सईद की बहुत बड़ी भूमिका रही है। आज इस्राइल के साथ सिर्फ अमरीका है।
फिलीस्तीन राष्ट्र की जमीन पर इस्राइल ने सन् 1948 से कब्जा किया हुआ है। वह समस्त अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और मंचों के आदेशों और प्रस्तावों की अवहेलना कर रहा है। फिलीस्तीनियों को उनके संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र के अधिकार से किसी न किसी बहाने से वंचित किए हुए है।
सईद के चिन्तन की केन्द्रीय विशेषता है स्वतंत्रता के प्रति दुस्साहसी वीरता। आलोचना में साम्राज्यवाद के प्रति दो-टूक रवैयया।
सईद की कैंसर के कारण मौत हुई,जब उनकी मौत हुई तब वह 62 साल के थे। उन्होंने 15 किताबें लिखीं, इसके अलावा सैंकडों आलेख लिखे, संगीत के बारे में उनकी गहरी समझ थी, संगीत की आलोचना और साहित्यालोचना में गहरा साम्य है। सन् 1978 में 'ओरिएण्टलिज्म' के आने के बाद सबसे बड़ा काम यह हुआ कि मध्यपूर्व की ओर सारी दुनिया के बुध्दिजीवियों का ध्यान गया। बौध्दिक जगत में मध्यपूर्व में चल रही साम्राज्वादी साजिशों और हिंसाचार को उद्धाटित करने में यह किताब मील का पत्थर साबित हुई। फिलीस्तीन के प्रति गहरी प्रतिबध्दता के कारण ही उन्हें फिलीस्तीन राष्ट्रीय परिषद का सदस्य बनाया गया जिसके वह 1991 तक सदस्य रहे।
सईद ने अमरीका की मध्यपूर्व विदेशनीति की तीखी आलोचना की है साथ ही यासिर अराफात के द्वारा जिस तरह अपने जीवन के अंतिम दिनों में समझौते किए उनकी भी आलोचना पेश की। खासकर ओसलो समझौते को उन्होंने फिलीस्तीन के समर्पण की संज्ञा दी। सईद के रवैयये और नजरिए को देखकर उन्हें तार्किक,अतिवादी,षडयंत्रकारी,गैर-जिम्मेदार,अमरीका विरोधी तक कहते थे। कुछ लोग उन्हें '' आतंक के प्रोफेसर' के नाम से भी पुकाते थे। ये सब वे लोग हैं जो उनके आलोचक हैं। संभवत: ये सारी बातें सईद में न हों। किंतु एक बात उनके व्यक्तित्व में थी, वह गैर परंपरागत बुध्दिजीवी थे। उनका समूचा बौध्दिक कर्म इसकी पुष्टि करता है।वह दुस्साहसी बुध्दिजीवी थे।

सईद ने अपने बचपन के आरम्भिक बारह साल फिलीस्तीन में बिताए, उनके पिता व्यापारी थे। ईसाईयत में आस्था थी। सन् 1947 के अंत में उनका परिवार कैरो अर्थात् काहिरा चला आया। इसके पास महीने बाद इस इलाके में युध्द शुरू हो गया। यह युध्द फिलीस्तीन अरब और यहूदियों के बीच शुरू हुआ, इसके बाद ही फिलीस्तीन का विभाजन हुआ। सईद की समूची शिक्षा अभिजन अंग्रेजी स्कूलों में हुई। मैसाचुसेट्स के बोर्डिंग स्कूल में अनेक साल बिताए। सन् 1957 में प्रिंस्टन से उन्होंने ग्रेजुएट किया।सन् 1964 में हार्वर्ड से पीएचडी डिग्री हासिल की।सन् 1963 में कोलम्बिया ने उन्हें इंग्लिश इंस्ट्रक्टर के रूप में नौकरी दी। उसके बाद उन्हें लगातार तरक्की दी गई। सन् 1967 के युध्द के बाद से उन्होंने फिलीस्तीन संघर्ष में दिलचस्पी लेनी शुरू की और फिर उसका हिस्सा बन गए। इस क्रम में उनकी पहचान भी बदल गयी, अब वे अमरीकी-अरब और फिलीस्तीन इन तीनों ही पहचान के रूपों को एक साथ जीने लगे।

इस्राइल की तत्कालीन प्रधानमंत्री गोल्डामायर ने सन् 1969 में एक भाषण में कहा था कि ' कोई फिलीस्तीन नहीं है।' यही वह बयान था जिसने सईद के नजरिए को बदल दिया। न्यूयार्क पब्लिक लाइब्रेरी के लिए दिए गए व्याख्यान में इसका उन्होंने जिक्र करते हुए लिखा है कि ''अपरिहार्यत: इसने मुझे अपनी भाषा में लेखन के लिए मजबूर किया।' इसके बाद 'मुझे एहसास हुआ कि कैसे व्यक्ति बनता है भाषा कैसे बनती है,लेखन तो यथार्थ की निर्मिति है यह उपकरण की तरह यह काम करता है।'' आगे लिखा लेखन '' शब्दों की शक्ति और उसकी प्रस्तुति को सामने लाता है। ये शब्द लेखक ,राजनीतिक,दार्शनिकों के यथार्थ को सिलसिलेबार ढंग से पेश करते हैं कभी-कभी अन्य के लिए पेश करते हैं।

सईद का पहला निबंध था '' दि अरब पोट्रेड''' यह निबंध 1968 में छपा था। इस निबंध में बताया गया था कि कैसे प्रेस में और कुछ विद्वानों के यहां इमेज का मेनीपुलेशन चल रहा है। जिस समय यह निबंध लिखा था उस समय अमरीका के बौध्दिक जगत में इस तरह के लेख को दुस्साहस ही कहा जाएगा। यह निबंध कालान्तर में दस साल बाद उनकी विश्व विख्यात किताब 'ओरिएण्टलिज्म' का आधार बना। इस किताब के मूल सूत्र सबसे पहले इसी निबंध में पेश किए गए थे।
(सुधा सिंह,एसोसिएट प्रोफेसर,दिल्ली विश्वविद्यालय ,दिल्ली )

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